(समाचार सारांश फीचर्स) युगधर्म की हुंकार थे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर*
(कुमार कृष्णन-विनायक फीचर्स)
” *सुनूं क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युग-धर्म का हुंकार हूँ मैं*
*कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव का टंकार हूँ मैं।“**
जीवन भर अपनी रचनाओं से जन-जागरण के लिए हुंकार की गर्जना भरने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर न केवल हिंदी साहित्य के भंडार को विविध विधाओं द्वारा भरने का यत्न करते रहे बल्कि क्रांति-चेतना के प्रखर प्रणेता बनकर अपनी कविताओं के जरिए राष्ट्र प्रेम का अलख जगाते रहे। दरअसल राष्ट्रीय कविता की जो परम्परा भारतेन्दु से शुरू हुई उसकी परिणति हुई दिनकर की कविताओं में। उनकी रचनाओं में अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था, तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोनेवाला एक राष्ट्रकवि भी।
दिनकर यशस्वी भारतीय पंरपरा के वे अनमोल रत्न हैं जिन्होंने अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश निर्माण और स्वतंत्रता के संघंर्ष में स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया था।
कलम आज उनकी जय बोल जैसी प्रेरणादायक कविता के प्रणेता दिनकर जितने बड़े ओज, शौर्य, वीर और राष्ट्र प्रेम के कवि हैं उतने ही बड़े संवेदना, सुकुमारता, प्रेम और सौंदर्य के कवि है। दिनकर ने अपनी रचनाओं में संवेदनाओं का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। प्रणभंग से लेकर हारे से हरिनाम तक में इसे आसानी से देखा जा सकता है।
दिनकर की लेखनी में अगर हर्ष है तो पीड़ा भी है। खुशी है तो वेदना भी है। निराशा है तो आशा की उम्मीद भी है। व्यवस्था के प्रति क्षुब्धता है तो एक नए सवेरे की उम्मीद भी है। हताशा है तो उससे उबरने की ताकत भी है।
दरअसल दिनकर की काव्य योजना उस युग से आरम्भ होती है जब गोरी सरकार के अत्याचारों के प्रतिरोध में देश का हर नवजवान सीना तान कर खड़ा था। ये वो समय था जब देश का क्षितिज नवयुवकों की छाती से निकलते हुए ख़ून से लाल हो रहा था। कोड़े खाते हुए निर्दोष युवाओं के मुँह से निकलती हुई वन्दे मातरम् की हर आवाज़ एक नये आगाज़ का संदेश दे रही थी और फाँसी पर झूलते हुए निर्भीक चेहरे भविष्य के पट पर लिखे हुए इतिहास की आहट दे रहे थे।
उस दौर में दिनकर ने इतिहास की इन घटनाओं को कसौटी पर कसते हुए लिखा–
“ *जब भी अतीत में जाता हूँ/ मुर्दों को नहीं जिलाता हूँ/ पीछे हटकर फेंकता बाण/ जिससे कम्पित हो वर्तमान ।*
बचपन से ही दिनकर में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इतिहास और साहित्य के ज्ञान ने उन्हें उपनिवेशवाद और सामंतवाद के गठबंधन के विरुद्ध खड़ा होने पर मज़बूर कर दिया। उनके उग्र विचारों में अगर राष्ट्रीय चेतना संपन्न कवि का रूप उभर कर सामने आया तो उसमे तत्कालीन परिवेश और पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा योगदान था।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ज्यादातर कवि गाँधी और मार्क्स के विचारों के द्वन्द में झूल रहे थे। दिनकर भी इससे अछूते नहीं थे। एक ओर गाँधी जी की अहिंसक नीति और सत्याग्रह तो दूसरी ओर चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के क्रांति कार्य थे। अहिंसक सत्याग्रह की राजनीति से युवाओं की आस्था हिलने लगी थी।
दिनकर ने अपनी इस मन:स्थिति को हिमालय कविता में काफी सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया।
“ *रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,*
*जाने दे उनको स्वर्ग धीर,*
*पर, फिर हमें गाण्डीव गदा,*
*लौटा दे अर्जुन भीम वीर” ।*